Wednesday, July 15, 2020

योग रहस्य

योग रहस्य 
    योग भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का अभिन्न अंग है। सृष्टि के आदिकाल से ही यह  है। जीव और ब्रह्म के मिलन को योग की संज्ञा दी गई । आदि योगी भगवान शंकर  ने सप्त ऋषियों  की सहायता से इसका प्रचार - प्रसार कराया। कालांतर में योग की विभिन्न धाराएँ प्रवाहित होने लगीं । गीता में भगवान कृष्ण ने भक्ति योग, ज्ञान योग, सांख्य योग, कर्मयोग आदि योग के प्रकारों का उल्लेख किया है।
इसी प्रकार समाज में  विभिन्न  प्रकार के योग विधियों का प्रादुर्भाव हुआ।  जैसे - राजयोग, अष्टांग योग, हठयोग, शैवयोग, जैनयोग, बौद्ध योग  सहज योग आदि।इन सभी योग प्रणालियों का एक ही लक्ष्य है - शारीरिक सौष्ठव एवं आध्यात्मिक उन्नति। आत्मसाक्षात्कार , आत्म -     कल्याण के साथ - साथ जन कल्याण,लोक कल्याण। प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करना। 
आज भौतिकतावादी युग में समस्त मानव जाति भौतिक सुख की चाह में कोल्हू की बैल की भांति साधन जुटाने  अधिक धन कमाने एवं एषणाओं की पूर्ति में  संलिप्त है। उसकी जीवन शैली विकृत हो चुकी है। उसके सोने जागने का समय अनिश्चित हो गया है। खाने का समय निश्चित नहीं रहा । कभी भी, कहीं भी फास्टफूड खाकर पेट भर लेने की आदत से ग्रस्त हो चुका है। आधुनिक संचार साधनों  के माध्यम से परोसी जाने वाली सामग्री  के प्रभाव से  मानसिक शक्ति का ह्रास हो रहा है। अपसंस्कृति के बौछार से आज हमारी संस्कृति का गला घोंटने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है ।नैतिकता का दम घुटने लगा है। अश्लीलता और फूहड़पन व्यवहार का अंग बनता जा रहा है। परिणाम स्वरूप आज संपूर्ण मानव समाज का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है।  वह विभिन्न प्रकार की बीमारियों  जैसे - डायबिटीज, ब्ल्डप्रेशर,हार्ट संबंधी बीमारी, चिंता, तनाव, अवसाद से ग्रसित होता जा रहा है । वह शक्तिहीन और तेज हीन होता जा रहा है। उसकी आत्मशक्ति का ह्रास हो रहा है। रोगों से  लड़ने की क्षमता में कमी हो रही है। विषम परिस्थितियों से घबराकर वह आत्महत्या  के लिए उद्धत हो रहा है।इसलिए आज फिर से योग को अंगीकार करने का समय  आ गया है ।
    महर्षि पतंजलि ने सर्वप्रथम योग को वैज्ञानिक  कलेवर प्रदान किया। एक व्यवस्थित रूप प्रदान किया। मानव समाज के लिए पतंजलि योगदर्शन जैसा उत्कृष्ट ग्रंथ का प्रणयन किया।जो युगों- युगों तक योग की गंगा  की पावन धारा से मानव को तारती रहेगी।
    महर्षि पतंजलि ने इस दर्शन में अष्टांगयोग के सूत्र का विवेचन किया है। इस महान ग्रंथ में यम,नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि  जैसे योग के अष्ट अंगों का उल्लेख किया है।
उन्होंने बताया है कि यम पॉच प्रकार के होते है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह  और ब्रह्मचर्य। आइए इन सूत्रों को समझते हैं।
अहिंसा - मन, वाणी और कर्म से किसी को पीड़ा ना पहुंचाना।
सत्य - आत्मानुभूति के बिना एक भी शब्द न बोलना।  देखना, सुनना और उसे परखना फिर आचरण में लाना। गूढ़ अर्थों में सत्य ईश्चर है, शेष मिथ्या है।
अस्तेय - स्तेय न करना अर्थात चोरी ना करना। यह चोरी किसी प्रकार की हो सकती है।
अपरिग्रह - संग्रह न करना। जितनी आवश्यकता है, उतना ही अपने पास रखना। शेष जरुरतमंदों में बांट देना।
ब्रह्मचर्य -   इसे दो अर्थों में लिया जाता है । पहला सदा ब्रह्म में लीन रहना। सब में ब्रह्म की अनुभूति करना। दूसरा सप्रयास वीर्यादि का संरक्षण करना।
इन पॉच सूत्रों को यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अपना लेे तो समाज या राष्ट्र से सभी प्रकार के अपराध, अनाचार ,  व्यभिचार का समूल नाश हो जाएगा। किसी को किसी प्रकार की असुरक्षा का अहसास नहीं होगा। वास्तव में इनको जीवन में उतारने से सामाजिक शुचिता का निर्मल वातावरण तैयार होता है। निर्भय होकर साधना करने का अवसर सहज ही उपलब्ध हो जाता है।  यह योग के मार्ग में प्रवत्त होने की पहली सीढ़ी है।
योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने पाँच नियमों का उल्लेख किया है । ये नियम हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ।   शौच से आशय में, वचन और कर्म से पवित्र होना। संतोष से तात्पर्य उद्यम से, पुरुषार्थ करने से, कर्म करने से जो कुछ प्राप्त हुआ  वहीं अपना है, उसी में संतोष करना, किसी की ओर न ताकना।  तप से आशय है कर्मशील रहना, विषम परिस्थितियों में भी अपने धैर्य और साहस को न त्यागना। शारीरिक, मानसिक कष्ट से विचलित न होना । स्वाध्याय दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । पहला स्व का अध्ययन अर्थात आत्मनिरीक्षण । दूसरा सु- अध्ययन अर्थात सत साहित्यों का अनुशीलन करना । इन दोनों से व्यक्ति के चरित्र में निखार आता है।  ईश्चर प्राणिधान का गूढ़ अर्थ है - पुरुषार्थ से, परिश्रम से, कर्म करने से जो कुछ प्राप्त हुआ है सबकुछ ईश्चर को समर्पित कर देना। कर्ता के भाव से मुक्त होना। कर्म के अभिमान से मुक्त होना। अर्थात ईश्चर  के प्रति कृतज्ञता का भाव ही ईश्चर प्राणिधान है।
ये नियम अपने लिए हैं। इससे व्यक्ति स्वयं परिमार्जित होता है।
ये दोनों (यम और नियम) योग की प्रारंभिक दो अनिवार्य सीढ़ियां है।  जो साधक इन सीढ़ियों से होकर गुजरता है, वह खरा होता है , समाज के लिए  उपयुक्त होता है। वह पथभ्रष्ट नहीं होता। साधना को कलंकित नहीं करता।
इन दोनों सीढ़ियों को पार करने के बाद योग की तीसरी सीढ़ी है - आसन । आसन  से साधना के लिए  शरीर और मन दोनों को साधा जाता है। साधना के लिए लंबे समय तक शरीर को एक स्थिति में रखना होता है।  आसनों के नित्य अभ्यास से शरीर सुंदर और सुडौल एवं निरोग बनाया जा सकता है। इसकी सहायता से शारीरिक दोषों को दूर किया जा सकता है। निश्चित ही यही कारण है कि कुछ लोग आसन और कुछ व्यायाम को योग समझ बैठे हैं।
वास्तव में इससे भी जरूरी बात है, कि आसानाभ्यास से साधक लंबे समय तक एक स्थित में होकर साधना करने में सक्षम हो जाता है। बिना आसन सिध्दि के न शरीर की स्थिरता प्राप्त की जा सकती और न ही मन की । अर्थात वह योग के लिए अयोग्य हो जाता है।  योग मार्गी की तीसरी योग्यता है आसन की सिद्धि।
अष्टांग योग का चौथा अंग है - प्राणायाम। प्राणायाम  शब्द प्राण और आयाम से मिलकर बना है।  यहां पर सामान्य अर्थमें  प्राण  से आशय श्वास -  प्रश्वास से है। और आयाम से आशय दिशा देना। लय  प्रदान करने से है।  वास्तव में प्राण वह सूक्ष्म तत्व है जो  श्वासों के माध्यम से शरीर में फैलता है और शरीर को चेतनशील बनाए रखता है।  प्राणायाम की सहायता से इस तत्व को शरीर में संतुलित किया जाता है। इसके संतुलन से शरीर में ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार होता है। शरीर और मन के दोषों का शमन होता है।  मन की एकाग्रता का विकास होता है। जो योग साधना के लिए अनिवार्य  है। यह एकाग्रता  जीवन के सभी क्रियाकलाप को निष्पन्न करने के लिए भी परमावश्यक है। प्राणायाम प्राणोंत्थान  का सहज माध्यम है किन्तु पूर्ण योग नहीं ।
प्रत्याहार योग का पांचवां अंग है। इसका अर्थ है इन्द्रियों को उनके विषयो से हटाना । हमारे शरीर में स्थित पांच ज्ञानेंद्रियां है। प्रत्येक ज्ञानेंद्री का एक विषय है। जैसे - आंख का विषय है सुंदर वस्तुओं में रमण करना। कान का विषय है - मधर और प्रिय सुनना। जीभ (रसना) का विषय है - सुमधुर वस्तुओं का रसास्वादन करना। नाक का विषय है - सुगंध । त्वचा का विषय है -  स्नेह और प्यार से भरा कोमल स्पर्श ।
प्रत्याहार से साधक अपने आसपास की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता। वह सभी परिस्थितियों में समान रहता है। उसे सुख में  न हर्ष की अनुभूति होती और दुख में  न विषाद की। जय - पराजय, लाभ - हानि  से वह विचलित नहीं होता। सदैव एक सा व्यवहार करता है।
इस प्रकार जैसे - जैसे साधक योग मार्ग की इन सीढ़ियों को पार करता जाता है, वैसे - वैसे वह ब्रह्म के निकट होता जाता है।
  इन पांच अंगों को योगाचार्यों ने बहिरंग की संज्ञा दी है। शेष तीन अंग योग के आभ्यांतर अंग है ।जो साधक को ब्रह्म के सूक्ष्म तत्व का साक्षात्कार कराने में सक्षम हैं।
अष्टांग योग का छठा अंग है - धारणा । 
धारणा का सामान्य अर्थ है, कोई छवि, रूप, बिम्ब, आकृति, विचार, शोच आदि। यहां पर धारणा से तात्पर्य वह केन्द्र है जिसमें साधक अपने मन को लगाता है। कुछ क्षणों के लिए रुकता है। आइए इसे और समझते हैं। हमारे मन में नाना विचार चलते रहते हैं। एक विचार पूर्ण नहीं होता कि दूसरा विचार उत्पन्न हो जाता है और वह पहले विचार का स्थान ग्रहण कर लेता है। यह क्रम निरंतर चलता रहता है। प्रति पल विचार का केन्द्रीय विषय बदलता रहता है। हमारे मानस पटल पर विचार से संबंधित छवियां बनती और बिगड़ती रहती है। उनके बीच कोई सामंजस्य नहीं होता।
किन्तु जब विचार केन्द्रीय भूत हो जाता है। निर्धारित केन्द्र बिंदु के इर्द - गिर्द ही विचार एक ही दिशा में स्वाभाविक गति करने लगे , वहीं धारणा है। साधक ध्येय को चुनने के लिए स्वतंत्र होता हैं। ध्येय के प्रति साधक की यथार्थ संकल्पना ही धारणा है।
अष्टाङ्ग योग का सातवाँ अंग है - ध्यान। 
धारणा की प्रगाढ़ता का नाम ही  ध्यान है।  ध्येय में निमग्नता की स्थिति ध्यान है।  इसमें साधक विचार शून्य होने लगता है।  उसकी वाह्य चेतना कम होती जाती है।  वह वाह्य क्रियाओं के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करता। निरंतर ध्येय से जुड़ा रहता है।  योग परंपरा में अनेक ध्यान की विधियों की चर्चा है उनमें से एक है -भावातीत ध्यान। 
समाधि - अष्टाङ्ग योग का अंतिम अंग है। 
समाधि ध्यान की प्रगाढ़ता. विचारशून्यता  की स्थिति है।  इसमें साधक वाह्य संवेदनाओं से मुक्त हो जाता है। ध्येय भी विलीन हो जाता है।  साधक पूरी तरह से स्थिर हो जाता है।  समाधि मुख्यतः दो प्रकार की बताई गई है - सबीज समाधि एवं निर्बीज समाधि। 


Wednesday, December 7, 2016

कमर दर्द

कमर दर्द 

आजकल कमर दर्द एक  सामान्य बीमारी बन गई है।  गलत तरीके से लम्बे समय तक बैठना, लम्बे समय तक खड़े रहना, अधिक वजन उठाना, सावधानी पूर्वक एक्सरसाइज न करना, एवं वात  विकार , स्पोंडलाइटिस आदि कारणों से कमर में दर्द हो जाता है।  इसे योगासन की सहायता से ठीक किया जा सकता है। 

सावधानी - 

सामने झुकने वाले आसन न करें । 

आसन 

1. भुजंगासन   ( 3 से 5 बार ) 
2. शलभासन  ( 3 से 5 बार ) 
3. अर्द्ध चक्रासन 
4. मकर आसन 
5. कन्धरासन 
6. मरकट आसन 
7. सेतुबंध आसन
8. सुप्त ताड़ासन 
9. मेरुदंड की 8  क्रियाएं 


Sunday, September 11, 2016

निम्न रक्त चाप


निम्न रक्त चाप के लक्षण -
1. सीने में दर्द होना। 
2. साँस लेने में कठिनाई होना।  
3.  थकान का अनुभव होना। 
4. अनियमित दिल की धड़कन होना।  
5. चक्कर आना आदि 

समाधान के उपाय- 
प्राणायाम- 
1. भस्त्रिका - 2 मिनट
2. कपाल भाँति- 5 मिनट
3. नाड़ी शोधन - 5 मिनट
4. उदगीथ प्राणायाम- 11 बार

आसन-
1. उत्तानपाद आसन - 3 बार
2. पवनमुक्तासन- 3 बार
3. पादवृत्तासन-  तीन- तीन बार
4. नौकासन- 2 बार
5. भुजंगासन- 2 बार
6. शशांकासन- 3 बार
7. मंडूक आसन- 3 बार

स्वर विज्ञान-
1 भोजन दाएं स्वर चलते समय करना।
2. भोजन करने के पश्चात सीधे सो कर 8 बार श्वास लेना।
3. तत्पश्चात दाएं करवट लेकर 16 श्वास लेना।
4 . फिर बाएं करवट लेकर 32 श्वास लेना।

एक्यूप्रेसर- 

1. माथे की बिंदी के स्थान पर 
2.  कान पर जहाँ बाली पहनते हैं, उसके नीचे।
3. हाथ की छोटी उंगली के ऊपरी दोनों पोर पर।
4. अंगूठे के टॉप पर
5. नाभि के चारों ओर
6. पैर के तलवे पर रोल चलाना।

आयुर्वेद-

1. सुबह एक गिलास पानी में एक चुटकी नमक, एक चम्मच शक्कर एवं एक चौथाई नीबू का रस डालकर पीना।
2. प्रतिदिन एक चम्मच तुलसी के पत्ते का रस लेना।
3. प्रतिदिन एक चम्मच अमृता रस का सेवन।
4. भोजन  करते समय छांछ में लवणभास्कर चूर्ण आधा चम्मच मिलाकर घूँट-घूँट कर पीना।
5. 10 से 15 किसमिश रात को पानी में भिंगोकर सुबह गर्म दूध के साथ लेना।
6. तिल के तेल से प्रतिदिन मालिश करना। तलवों में तेल लगाकर रगड़ना

Thursday, August 11, 2016

मधुमेह ( Diabetes Mellitus)

मधुमेह (diabetes)का योग में समाधान 
आसन- 
1. हलासन - प्रतिदिन 5 से 10 बार
2. नौकासन- प्रतिदिन 5 बार
3. उत्तानपादासन- प्रतिदिन 2 बार
4. सर्वांगासन- प्रतिदिन 1 बार
5. मत्स्यासन- प्रतिदिन 2 बार
6. भुजंगासन- 3 बार
7. शलभासन- 3 बार
8. धनुरासन- 2 से 3 बार
9. पश्चिमोत्तानासन- 3 बार
10. वक्रासन- 2 से 3बार  
11.अर्धमत्स्येन्द्रासन - 2 से 3 बार
12. योगासन- 2 से 3 बार
13. मंडूकासन - 5 बार
14. मयूरासन- 1 बार
 इसके अतिरिक्त सूर्य नमस्कार प्रति दिन 12 बार
क्रिया- उड्डीयान बन्ध और अग्निसार
प्राणायाम- 
1. कपालभांति - प्रति दिन 15 से 20 मिनट
2. अनुलोम-विलोम- 10 मिनट
3. महाप्राण ध्वनि- 10 से 15 बार
4. ॐ की ध्वनि- 5 से 11 बार
     इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग का अभ्यास करें।


Wednesday, August 10, 2016

Spondylitis

स्पॉन्डिलाइटिस  क्या है ?
आज-कल यह बीमारी आम हो गई है।  आइए समझें की यह बीमारी है क्या ? स्पॉन्डिलाइटिस का सम्बन्ध रीढ़ की हड्डी से है।  इस रोग में गर्दन के पास की रीढ़ के हड्डी में सूजन आ जाता है।  इस रोग से पीड़ित रोगी अपनी गर्दन को न घुमा पाता  है न ही ऊपर नीचे कर पाता।  यदि करता है तो उसे तीव्र वेदना होती है |  यह कशेरुकाओं के बीच का अंतर कम हो जाता है।  यह बीमारी गलत तरीके से बैठना, सोना एवं कार्य करने से होता है।      

लक्षण-
1. व्यक्ति के पीठ, कंधे और गर्दन में दर्द होना।  
2. सिर में भारीपन या चक्कर आना।  
3. हाथ- पैर का सुन्न होना।  
4. उठने-बैठने पर चक्कर  आना।  आदि 

कारण- 
1. दिनभर गर्दन को झुकाकर काम करना।
2. ऊँचा तकिया लगाकर सोना।
3. गर्दन झुकाकर लिखना-पढ़ना आदि।
4. कम्प्यूटर पर लगातार काम करना। 
5. ऐसे शिक्षक जो गर्दन ऊपर किए लगातार बोर्ड पर लिखते हैं या सर झुकाए लगातार  कापियाँ जाँचते है।  

योगिक उपचार -
1. लकड़ी के तख़्त पर बिना तकिया लगाए सोना।
2. शायं सोते समय गर्दन के नीचे तकिया रखकर  सिर को पीछे की ऒर लटकाना ।
3. भुजंगासन, शलभासन, उष्ट्रासन, मत्स्यासन, मकरासन, सुप्त ताड़ासन, अर्द्ध चक्रासन  आदि।
4 .योग प्रशिक्षक के मार्ग दर्शन में मेरुदंड के आठ व्यायाम करना ।  
5. मर्कट आसन योग प्रशिक्षक के मार्ग दर्शन में।  
4. कंधो का व्यायाम । 

विशेष- 
1. कोई भी आसन झटके से नहीं करना है।  अच्छा होगा की  योग प्रशिक्षक के मार्ग दर्शन में ही करें।  
2. स्पॉन्डिलाइटिस के रोगी लगातार एक सप्ताह तक आसन एवं व्यायाम करने से ठीक हो जाते हैं।  
3. ऐसे लोग जो लगातार कम्प्यूटर पर काम करते हैं।  बहुत समय तक कुर्सी पर बैठे रहते है या गर्दन झुकाकर या ऊपर उठाकर लम्बे समय तक काम करते हैं, उन्हें ऊपर बताए गए आसन और सूक्ष्म-व्यायाम प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।   

Saturday, August 6, 2016

सायटिका या गृध्रसी

आसन
* वज्रासन
* सुप्त बज्रासन
* जानुशिरासन
* धनुरासन
* हस्तपदांगुष्ठासन 
* शलभासन
प्राणायाम
* अनुलोम विलोम
* सूर्य भेदी 
* कपालभाँति

Friday, August 5, 2016

योग

योग शब्द संस्कृत की युज् धातु से बना है, जिसका तात्पर्य जुड़ना और समाधि है। महर्षि पतंजलि के अनुसार  ' चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
      योग जीने की एक कला है। योग से शरीर और मन दोनों स्वस्थ होते है और आत्मानुभूति होती है। आत्म शक्ति का विकास होता है। योग जीव और ब्रह्म के मिलन का दूसरा नाम है। इससे मन को शांति मिलती है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दूर होते है। 
      योग संपूर्ण विज्ञान है। इसकी प्रयोगशाला शरीर है। कोई भी इस प्रयोगशाला में प्रयोग करके अनुभव कर सकता है।
      गीता में योग को 'समत्वं योग उच्चते'और 'योग कर्मसु कौशलम्' कहा गया है। महर्षि चरक ने मन का आत्मा में स्थिर होंने को योग कहा  है। वास्तव में योग आत्मा का परमात्मा से मिलन का नाम है, किन्तु योग की सहायता से हम अपने शरीर को भी निरोग रख सकते हैं । इस प्रकार योग वह विज्ञानं है जो तन को उपयोगी बनाता है, आत्मा से परमात्मा के मिलन का मार्ग प्रशस्त करता है । 
   योग के दो रूप हैं - 1. बाह्यांतर और 2. आभ्यान्तर ।  बाह्यांतर का सम्बंध शरीर से है तथा आभ्यंतर का सम्बन्ध आत्मा से है । महर्षि पतंजलि ने योग  आठ अंग बताए हैं - यम,नियम,आसन,प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इसमें से प्रथम पॉँच बाह्यांतर योग की श्रेणी में रखे जा सकते है , शेष तीन को आभ्यान्तर योग की श्रेणी में रखा जा सकता है । इसका सीधा अर्थ है कि योग का सम्बंध हमारे शरीर और आत्मा दोनों से है ।